कविवर बिहारी जिन्हें बिहारी लाल और बिहारी लाल चौबे के नाम से भी जाना जाता है, ये रीतिकाल के महान और प्रमुख कवि थे। कविवर बिहारी द्वारा रचित दोहे का संग्रह सतसई के नाम से जाना जाता है। इनकी रचना की विशेषता है कि कम शब्दों में इनकी रचनाएँ ढेरों भाव छोड़ जाती हैं। इनकी रचना में श्रींगार रस के अलावा भक्ति और नीति का समागम भी देखने को मिलता है।
बिहारी के दोहे ब्रजभाषा में श्लेष, उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अन्योक्ति और अतिश्योक्ति अलंकारों का समागम है, जो किसी को भी भाव विभोर किये बिना नहीं रह सकतीं।
कविवर बिहारी का जीवन परिचय
रीतिकालिन रसीक शिरोमणि कविवर बिहारी का जन्म 1595 में ग्वालियर में माथुर चतुर्वेदी ( ब्राह्मण ) परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम केशवराय था। बिहारी के पिता बाल्यकाल यानी इनके आठ वर्ष कि अवस्था में इन्हें ओरछा ले आये इनका बचपन बुंदेलखंड में बीता।
इनके गुरु का नाम नरहरिदास था। इनका विवाह मथुरा में हुआ था। अपने एक दोहे के माध्यम से महान कवि बिहारीलाल नें इस बात को दर्शाया भी है।
जन्म ग्वालियर जानिये खंड बुंदेले बाल।
तरुनाई आई सुघर मथुरा बसि ससुराल॥
महाकवि बिहारीलाल जयपुर के राजा महाराजा जयसिंह के दरबारी कवि थे पर इनके महाराजा जय सिंह के दरबारी कवि बनाने की कथा अत्यंत रोचक है। उस समय महाराजा अपने नई नवेली महारानी के प्रेम और सौंदर्य में इतने आकर्षित थे कि उन्होंने राज काज, प्रजा और राज्य पर ध्यान देना छोड़ दिया था।
किसी कि हिम्मत नहीं हो पा रही थी कि वो राजा का ध्यान राज काज कि तरफ आकर्षित कर पाए, तब महाकवि बिहारीलाल नें एक दोहा लिखकर किसी तरह महाराजा तक पहुंचवाया, जो निम्न प्रकार है –
नहिं पराग नहिं मधुर मधु, नहिं विकास यहि काल।
अली कली ही सौं बंध्यो, आगे कौन हवाल॥
अर्थ – भौंरा कलि पर मडरा रहा है जबकि इस समय न इसमें पराग है और न हीं इसमें शहद है तब इसका ये हाल है तो जब कलि फूल में परिवर्तित होगी तो इस भौंरे का क्या हाल होगा।
सन्देश – हे राजन आप जिस नवविवाहिता के प्रेम में अपना सुधबुध खो बैठे हैं, वो तो अभी पूर्ण युवा भी नहीं हैं और आप सब कुछ भूल गए। उनके पूर्ण युवा होने पर आपका क्या हाल होगा।
कहते हैं कि इस दोहे से महाराजा इतने प्रभावित हुए कि इन्होने बिहारीलाल को राजकवि घोषित कर दिया और पुनः राज काज कि तरफ ध्यान देनें लग गए। महाराजा नें बिहारीलाल को और भी दोहे कि रचना करने के लिए कहा तथा प्रति दोहे के लिए एक स्वर्ण मुद्रा देने का वचन दिया।
कविवर बिहारी नें 719 दोहों की रचना की है जिसका संकलन “सतसई” के नाम से जाना जाता है। यह मुक्तक काव्य है। ‘सतसई’ को ब्रजभाषा में लिखा गया है। उस समय उत्तर भारत में ब्रजभाषा ही एक सर्वमान्य प्रचलित भाषा थी। सन 1664 में महाकवि की मृत्यु हो गई।
कविवर बिहारी का साहित्यिक परिचय
बिहारी के रचना की भाषा ब्रज भाषा है परन्तु इन्होने अपनी रचना में आंशिक रूप से पूर्वी हिंदी, बुंदेलखंडी, उर्दू, फ़ारसी आदि के शब्दों का भी प्रयोग किया है। इन्होने शब्दों का प्रयोग भावों के अनुकूल बड़े हीं सुन्दर ढंग से किया है।
वैसे तो कविवर बिहारी की रचनायें मूल रूप से श्रृंगार रस से ओत प्रोत हैं परन्तु इनमें शांत, हास्य, करुण आदि रस का समागम भी देखने को मिलता है। बिहारी की रचना दो तरह के हीं छंद पर आधारित हैं, दोहा और सोरठा।
अगर अलंकार की बात की जाय तो कविवर बिहारी के दोहे में श्लेष, उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अन्योक्ति और अतिश्योक्ति अलंकार भी दृष्टिगत होते हैं।
कविवर बिहारी ने श्रृंगार रस में संयोग और वियोग दोनों का चित्रण बड़े हीं सुंदर ढंग से किया है। संयोग का उदाहरण देखिये –
“बतरस लालच लाल की मुरली धरी लुकाय।
सोह करे, भौंहनु हंसे दैन कहे, नटि जाय॥”
अर्थ – श्रीकृष्ण से बात करने की लालसा में गोपियाँ श्रीकृष्ण की बांसुरी को छुपा देती हैं ताकी श्रीकृष्ण के बांसुरी मांगने पर उनसे बात कर सकें, परन्तु जब वो बांसुरी मांगते हैं तो वो अपने भौहों को ऐसे बनाती हैं जैसे वो सौगंध खा रहीं हों कि इनको बांसुरी के बारे में तनिक भी पता नहीं। श्रीकृष्ण इनके झूठ को समझ जाते हैं और पुनः मांगते हैं परन्तु ये मना कर देती हैं।
अब वियोग का एक उदाहरण देखिये :-
“औंधाई सीसी सुलखि, बिरह विथा विलसात।
बीचहिं सूखि गुलाब गो, छीटों छुयो न गात॥”
अर्थ :- कविवर बिहारी कहते हैं नायिका का शरीर नायक के विरह वेदना में इतना तप्त ( गर्म ) हो गया है कि उसके सखियों द्वारा उसे ठंढा करने के लिए उसके शरीर पर डाला जाने वाला गुलाबजल उसके तप्त शरीर के कारण उसके शरीर का स्पर्श भी नहीं कर पा रहा है और बीच में हीं सुख जा रहा है।
कविवर बिहारी ने थोड़ी बहुत भक्ति आधारित रचनाएँ भी की हैं उनकी भक्ति भावना श्री राधा कृष्ण के प्रति है जिसको इन्होने सतसई की रचना के आरम्भ में मंगलाचरण में अपने दोहे के रूप में दर्शाया है। –
“मेरी भव बाधा हरो, राधा नागरि सोय।
जा तन की झाई परे, स्याम हरित दुति होय॥”
इस दोहे के माध्यम से कवि ने कहा है कि हे श्री राधे जी मेरे जीवन में खुशहाली प्रदान करके मेरे कष्ट और बाधा को वैसे हीं दूर करें जैसे मेरे आराध्य श्री कृष्ण आपके छाया मात्र से अर्थात आपके सानिध्य मात्र से श्याम वर्ण से हरे वर्ण के हो जाते हैं यानी प्रफुल्लित हो जाते हैं।
इनके अलावा बिहारी के दोहे में प्रकृति चित्रण, ज्योतिष, वैद्यक, गणित, विज्ञान आदि विविध विषयों की छाप भी देखने को मिलती हैं।